ये प्रक्रति शायद कुछ कहना चाहती है मुझसे
ये कान के पास से गुजरती हवाओ की सरसराहट
ये पर फुदकती चिडियों की चहचहाहट ,
ये समुंदर की लहरों का शोर,
कुछ कहना चाहती है मुझसे
ये प्रक्रति शायद कुछ कहना चाहती है मुझसे
ये चांदनी रात, ये तारो की बरसात,
ये खिले हुए फूल, ये उडती हुई धुल,
ये नदिया की कलकल, ये मोसम की हलचल,
ये पर्वत की चोटिया, ये झींगुर की सीटिया,
कुछ कहना चाहती है मुझसे,
ये प्रक्रति शायद कुछ कहना चाहती है मुझसे
उड़ते पंछियों की उमग, धोड़ते हिरणों का तरंग,
ये सूरज की किरण जो भर्ती है रण का हर एक कण,
ये फूल और कांटे, एक करता जग सुगन्धित तो दूसरा वस्त्रो का चीर हरण,
कुछ कहना चाहती है मुझसे,
ये प्रक्रति शायद कुछ कहना चाहती है मुझसे
तुलसी की उर्जा, बरगद और पीपल की छाया,
गो माता का दूध और मधुमक्खी का मधु है अनमोल देन,
ये प्रकृति का कण कण कुछ कहना चाहता है मुझसे,
ये प्रक्रति शायद कुछ कहना चाहती है मुझसे
सब कुछ दिया मेने, परन्तु तूने क्या दिया मुझे,
ये मार-काट, ये मोटर गाडियों की चे-चे पे-पे,
फैक्ट्री से निकलता प्रदुषण, वनों को काटते ये आदमी,
जानवरों को मारते, काटते और खाते ये नर भक्शी,
छोड़ दे मुझसे, और बच्चा ले मुझसे इन नर भक्शीयो से मुझसे
अब समझ आया ये प्रकृति क्या कहना चाहती है मुझसे ||