कबीरदास जी पन्द्रहवीं शताब्दी के एक महान रहस्यवादी कवि और संत थे। ये भक्तिकालीन युग के एक ऐसे कवि थे जिन्होंने अपनी रचनाओं से भक्ति आंदोलन को बहुत प्रभावित किया। इनकी रचनाएँ आज के युग मे भी प्रेरणा का स्रोत है। भारतीय संस्कृति और साहित्य में इनका योगदान अतुलनीय है। इनके अनुयायी कबीर पंथ नाम से एक धार्मिक सम्प्रदाय चलाते हैं।
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कबीरदास जी का जीवन परिचय
कबीरदास जी का जन्म लगभग 1398 ईस्वी में लहर तारा ताल, काशी में हुआ था। इनके जन्म के संबंध में कई मतभेद हैं। ऐसा माना जाता है कि इनका जन्म एक विधवा स्त्री के गर्भ से हुआ था, जिन्होंने लोक लाज के डर से इन्हें नदी के किनारे फेंक दिया था।
इसी वजह से कबीरदास जी समाज की कुरीतियों को कोसते रहते थे। वहां से नीमा और नीरू नामक जुलाहे दम्पत्ति इन्हें उठाकर ले आए। उन्होने ही कबीरदास जी का पालन पोषण किया। कबीरदास जी का विवाह लोई नामक स्त्री से हुआ,जिनसे इन्हें दो संतान कमाल और कमाली प्राप्त हुए। पर कुछ स्रोतों के अनुसार कबीरदास जी बाल ब्रम्हचारी थे।
लोई और कमाली उनकी शिष्या थीं। इनकी मृत्यु 120 वर्ष की अवस्था मे मगहर में 1518 ईस्वी में हुई। कहते है उस समय ऐसी धारणा थी कि काशी में मरने से मोक्ष मिलता है जबकि मगहर में मरने से मुक्ति नही मिलती। कबीरदास जी ऐसे बातों के सख्त विरोधी थे।
इसी कथन को गलत साबित करने के लिए कबीरदास जी अपने अंत समय मे मगहर में आकर रहने लगे थे। वही उनकी मृत्यु हुई। उनकी मृत्यु के बाद उनकी लाश के लिए हिन्दू मुस्लिम आपस मे लड़ने लगे थे। हिन्दू उन्हें जलाना चाहते थे जबकि मुस्लिम दफ़नाना।
कहते है जब उनकी लाश से चादर हटाया गया तब वहां लाश की जगह कुछ फूल मिले जिसे हिन्दू मुस्लिम ने आपस मे बाट लिया।
कबीरदास जी की शिक्षा
कबीरदास जी के माता पिता इतने सक्षम नही थे कि उन्हें मदरसे में पढ़ने के लिए भेज पाते। दो वक्त के भोजन के लिए उन्हें इधर उधर भटकना पड़ता था। इसलिए उनकी प्रारंभिक शिक्षा नही हो पाई।
लेकिन फिर भी वे दोहे कहा करते थे। लेकिन जब वे बड़े हुए तब उन्हें शिक्षा की आवश्यकता हुई। इसके बाद उन्होंने रामानंद जी से शिक्षा लेना चाहा। परंतु उस समय काशी में पाखंडियों का बोलबाला था। जात पात का भेद भाव पूरे समाज मे फैला हुआ था।
रामानंद जी के बारे में ऐसा माना जाता था कि ये नीची जाति वालों को अपना शिष्य नही बनाते थे। इसी वजह से इन्होंने कबीरदास जी को शिष्य बनाने से इंकार कर दिया था। लेकिन कबीरदास जी के हठ औऱ सूझ बूझ के कारण उनको अपना शिष्य बनाना पड़ा।
कहते हैं एक बार जब रामानंद जी नदी से नहाकर बाहर आ रहे थे तो कबीरदास जी घाट पर लेट गए। बाहर आते समय रामानंद जी का पैर इनपर पड़ गया और उनके मुंह से राम शब्द निकल गया।
इसके बाद रामानंद जी ने इन्हें अपना शिष्य बन लिया। चूंकि रामानंद जी ने समाज की कुरीतियों के खिलाफ इनको शिक्षा दी इसलिए ये गुरु को भगवान से भी उपर का स्थान देते है। गुरु के विषय मे कबीरदासजी कहते हैं कि
गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागूं पाय
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय
अतार्थ जब मेरे सामने मेरे गुरु और भगवान दोनों एक साथ आ गए तो मैं संकोच में पड़ गया कि पहले किसके पैर छुऊं। अगर भगवान सबसे ऊपर है तो भगवान के बारे में बताने वाले गुरु उनसे कम कैसे हो सकते है। अगर गुरु नही होते तो हम भगवान के बारे में कैसे जान पाते।
कबीरदास जी की भाषा और काव्य रचना
कबीरदास जी अपनी रचनाओं में सहज और सरल भाषा का प्रयोग करते थे। इनकी भाषा मे मुख्य रूप से खड़ी बोली, पुर्वी हिंदी , राजस्थानी, पंजाबी, ब्रज, अवधी, पंचमेल खिचड़ी इत्यादि की झलक देखने को मिलती है। इनकी भाषा को सधधुक्ककड़ी के नाम से जाना जाता है।
इनका काव्य जन साधारण में प्रेरणा का श्रोत है। इन्होंने अपनी काव्य रचनाओं के माध्यम से भक्ति आन्दोल को एक नई दिशा प्रदान की ये अपनी रचनाओ से हिंदू और मुसलमानों के अवगुणों पर सीधा आघात करते थे।
इसलिए ये हिंदू और मुसलमान दोनों के द्वारा काफी प्रताड़ित किए गए थे। लेकिन बाद में इनके दोहों ने दोनों को प्रभावित किया और दोनों ही धर्म के लोग इनके अनुयायी बने। समाज मे धर्म के नाम पर फैली कुरीतियों को इन्होंने हटाने का पूरा प्रयत्न किया।
हिन्दुओं की मूर्ति पूजा के संबंध में ये कहते थे कि
पत्थर पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहाड़
ताते यह चक्की भली जो कूट खाए संसार
अतार्थ अगर पथ्थर की पूजा करने से भगवान मिलते हैं तो मैं पहाड़ की ही पूजा कर लूं। उससे अच्छी तो यह चक्की है जिससे पुरे संसार का पेट भरता है।
वहीं मुसलमानों के विरोध में इनका कहना था कि
काकड़ पाथर जोड़ी के मस्जिद लियो चुनाय
ता चढ़ी मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय
यह अर्थ यह है कि पत्थर को जोड़ जोड़कर ऊंची मस्जिद बना लिए हैं। और उस पर चढ़कर भगवान को बुलाते हैं। क्या तुम्हारे खुदा बहरा है जो इतने तेज से पुकारते हो।
इन्होंने धर्म का ऐसा स्वरूप सामने लाया जिसमे कर्म को प्रधानता दी गई हो। सभी धर्मों पर तीखा वार करते हुए कबीरदास जी कहते हैं कि
पोथी पढ़ पढ़ जग हुआ, पंडित हुआ न कोई
ढाई अक्षर प्रेम का पढा जो पंडित होई
इस पद्य में कवि कहते है कि बड़े बड़े धर्म ग्रंथो को पढ़ने से कोई विद्वान नही हो जाता। सच्चा विद्वान तो वही है जो प्रेम की भाषा जनता है।
कबीरदास जी निराकार ब्रह्म की उपासना करते थे। वे व्रत, पूजा, रोज़ा, मूर्ति आदि में विश्वास नहीं करते थे। उन्होंने लोगो को परमात्मा का एक अलग रूप दिखाया जो कि निर्गुण और निराकार है।
कबीरदास जी की रचनाएं
कबीरदास ने खुद किसी ग्रंथ की रचना नही की, वे केवल दोहों के माध्यम से अपनी बात लोगों को बताते थे। उनके शिष्यों ने उनके उपदेशों को धागे में पिरोया। इस प्रकार उनके उपदेश कुल मिलाकर छह रचनाओं में संग्रहित हैं। जो इस प्रकार हैं-
- कबीर साखी–इस ग्रंथ के माध्यम से कबीरदास जी ने आत्मा और परमात्मा के संबंध को समझाया है।
- कबीर बीजक– कबीरदास जी की वाणियो को बीजक में संग्रहित किया गया है। इस ग्रंथ के मुख्य रूप से तीन भाग किए जा सकते हैं। रमैनी, सबद और साखी।
- रमैनी चौपाई और दोहा छंद में रचित है। इसमे कबीरदास जी के रहस्यवादी और दार्शनिक विचारों की झलक मिलती है।
- सबद में गेय पद विद्यमान हैं। कबीरदास जी के दोहों को संगीतात्मक रूप से इसमे संग्रहित किया गया है।
- साखी संस्कृत के साक्षी शब्द से लिया है इसमें कबीरदास जी के विचारों को दोहा छंद में लिखा गया है।
- कबीर शब्दावली– इस ग्रंथ में कबीरदास जी ने परमात्मा का ज्ञान कराया है।
- कबीर दोहावली– इस ग्रंथ में कबीरदास जी के दोहों को रखा गया है।
- कबीर ग्रंथावली– इस ग्रंथ में कबीरदास जी के पद और दोहे आते हैं।
- कबीर सागर– यह एक ऐसा ग्रंथ है जिसमे परमात्मा को विस्तार से समझाया गया है।
कबीरदास जी का व्यक्तित्व
कबीरदास जी का व्यक्तित्व बहुत ही अनोखा और आकर्षक था। हालांकि ये तुलसीदास के समान ही भक्तिवादी थे लेकिन फिर भी इनकी सहजता लोगों का ध्यान ज्यादा आकर्षित करती है। धर्म की कुरीतियों पर इनका हास्यप्रद आघात बहुत ही लुभावना होता था जो कि आज भी प्रेरणा का स्रोत है। कबीरदास जी कहते थे
माला फेरकर जुग बीत गया मिटा न सका मन का फेर
कर का माला छोड़ कर मन की माला फेर
तत्कालीन पूजा पद्धति पर व्यंग करते हुए कवि कहते है कि माला को फेरते फेरते कई युग बीत गए लेकिन फिर भी मन का मैल नही मिटा। इसलिए कवि हाथ की माला को छोड़कर मन की माला को फेरने की सलाह देते हैं।
कबीरदास जी ने समाज सुधारक के रूप में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनकी कविताएं समाज की कुरीतियों को मिटाने का काम करती हैं। उन्होंने कहा कि
बुरा जो देखने मैं निकला बुरा न मिला कोय
जो अपने मन में खोजा आपना मुझसा बुरा न कोय
अतार्थ जब मैंने इस संसार मे बुरे लोगों को खोजना शुरू किया तो मुझे एक भी बुरा इंसान नही मिला। जब मैंने अपने अंदर झांक कर देखा तो पता चला कि मुझसे बुरा इस संसार मे और कोई नहीं।
एक और पद्य के अनुसार कवि कहते हैं कि
बड़ा होकर कुछ किया नहीं जैसे पेड़ खजूर
राही को छाया नही फल लगा अति दूर
कवि कहते हैं कि केवल बड़े होने से कोई लाभ नही अगर हमारे बड़े होने से किसी को लाभ नही मिलता। खजूर का पेड़ बड़ा होकर भी किसी को छाया नही दे सकता और उस पर फल भी काफी दूर लगता है जो हर किसी के पहुंच से परे है।
Conclusion
भक्तिवादी संत, समाज सुधारक कवि कबीरदास की वाणी पन्द्रह वीं शताब्दी से लेकर आज तक प्रेरणा का स्रोत बानी हुई हैं। आज भी घर घर में कबीरदास जी की वाणी गुंजती है और जीवन को एक नई दिशा प्रदान करती है। विद्यालयों में उनकी कविता पढ़ाई और समझाई जाती है। जिससे बच्चे बाद हो उनके जीवन मूल्यों को अपने जीवन मे उतारें। कबीरदास जी अपने दोहों के माध्यम से हमेशा हमारे मन मे रहेंगे।