सीखो के तीसरे गुरु अमर दास जी का जन्म 5 मई 1479 को वर्तमान अमृतसर जिले के बारसका गाँव में हुआ था | उनके पिता का नाम तेजभान और माँ का नाम सुलखिनी था और ये लोग कट्टर हिन्दू थे | उनके माता-पिता बहुत धर्मिक थे और और इसका असर अमर दास जी पड़ा | तेजभान गाँव में किराने की दुकान चलाते थे और इसी दुकान से उनका जीवन चलता था | जब अमर दास जी कुछ बड़े हुए तो वह भी अपने पिता के साथ दुकान पर उनका हाथ बटाने चले गए | अमर दास जी का परिवार हर साल हरिद्वार गंगा जी में स्नान करने जाते थे |
एक बार की बात है अमर दास गंगा स्नान कर रहे थे, संयोगवश उसी समय प्रसिद ज्योतिषी पंडित दुर्गादत भी वहा स्नान कर रहे थे | पंडित जी ने उन्हें अपना परिचय दिया और उनकी हाथ की रेखाए देखने लगे | वे उनकी हाथ के रेखाए देख कर चकित रहे गए |
इस तरह देखने पर अमर दास जी ने उनसे इसका कारण पूछा | पंडित जी बोले, “बेटा, जैसी रेखाए तुम्हारे हाथ में है वैसी रेखाए बहुत कम लोगे में होती है क्या तुम मुझे अपना परिचय दोगे?”
तब अमर दास जी ने उन्हें अपना परिचय दिया और पंडित जी को अपने घर ले गए अपने माता-पिता जी से मिलवाने |
तेजभान ने बड़े उत्सकता से पूछा, “क्या मेरे पुत्र के हाथ में विशेष बात हे |”
पंडित जी बोले, “जी हा, आप के पुत्र में राजयोग है | आपका बेटा बड़ा होकर या तो कोई राजा बनेगा अथवा कोई संत-फकीर| यह लोगो के ह्रदय पर शासन करेगा |”
यह सुनते ही तेजभान बोले, “यह क्या कहे रहे है आप | हम न तो राजा – महाराजा के वंशके है और न ही हमारे परिवार में कोई संत – फकीर |”
पंडित जी बोले, सजवान – व्यकित के भाग्य में जो भी होता है, वन उसे स्वत: ही मिल जाता है | पंडित जी ने पूछा की आप किस गुरु को मानते है |
तेजभान ने बड़े दुखी हो कर कहा, “ऐसा सोभग्य हमे प्राप्त नहीं हुआ है | अभी हमारे कोई गुरु नहीं है |”
यह सुनते ही पंडित जी खड़े हो गए और बोले, “में ऐसे घर पर नहीं जाता जिसका कोई गुरु न हो और यह बोलते ही वह वहा से चले गए |”
इस बात का अमर दास जी को बहुत बुरा लगा | जब अमर दास जी 23 वर्ष के हुए तो उनके पिता ने उनकी शादी श्री देविचंद्र की पुत्री मनसा देवी के साथ तेय कर दी | अमर दास को मंसा देवी से दो पुत्र और दो पुत्रियों की प्राप्ति हुई |
अमर दास अब साथ साथ दुकान संभलते और साथ साथ एक सच्चे गुरु की तलाश में संत-फकीरों से मिलते | कुछ वर्षो बाद अमर दास जी के माता-पिता की मृत्यु हो गई | लेकिन अमर दास जी की तलाश जारी रही |
एक सुबह अमर दास जी टहल रहे थे, तभी किसी की मधुर स्वर में गाने की आवाज सुनाई दी | व आवाज इतनी मधुर और ह्रदय को शांत करने वाली थी की अमर दास उसकी और खींचे चले गए | यह भजन उनकी भतीजे की पत्नी गा रही थी |
अमर दास जी ने उनसे पूछा, “पुत्री, तुम कोन सा गीत गा रही थी” |
तब उन्होंने उतर दिया, “चाचा जी में तो गुरु नानक देव जी द्वारा लिखा भजन गा रही थी | मेरे पिता गुरु नानक देव जी के शिष्य है |
तब अमर दास जी बोले, “पुत्री क्या तुम मुझे अपने पिता के पास ले चल सकती हो |”
क्यों नहीं चाचा जी, बिलकुल ले चलुगी आप को | कुछ दिनों बाद अमर दास जी को वो अपने पिता के पास ले गई | जिस समय अमर दास जी अमरो के साथ खंडूर पहुचे, उस समय वहा गुरु अंगद देव सहिव की दिव्य वाणी का मनन कर रही थी | अमर दास एकाग्रित होकर गुरु साहिब की वाणी का रसपान करने लगे | ऐसा लग रहा था की वो सुख के सागर में गोते लगा रहे थे | मन ही मन उन्हें महसूस हुआ की मुझे अब सच्चे गुरु की प्राप्ति हो गई है |” ख़ुशी से उनके नेत्रों से अश्रु बहने लगे और उसी अवस्था में अमरो ने गुरु अंगद देव का अमर दास से परिचय कराया | अमर दास जी उनके चरणों में गिर गए और बोले, “में कई वर्षो से सच्चे गुरु की खोज कर रहा हु | मुझे अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कर लीजिए | यदि आपने मुझे अपने चरणों में स्थान नहीं दिया तो में कभी चेन की साँस नहीं में सकुगा |”
गुरु अंगद देव जी ने अमर दास जी अपना शिष्य स्वीकार किया और उन्होंने अमर दास जी को ;लंगर की व्यवस्था करने का भार सोंप दिया |
जिस समय भाई अमर दास ने गुरु अंगद देव का शिश्यय्त्व ग्रहण किया, तब उनकी आयु बासठ वर्ष थी | वे बहुत हु उत्सकता से लंगर का काम संभालते और साथ साथ अंगद देव जी की व्यक्तिगत सेवा का कार्य भी संभालते थे | दिन पर्तिदिन सरे काम करते |
एक दिन तेज वर्ष हो रही थी | नदी के रस्ते में जगह जगह कीचड़ भर गया था | लेकिन धुन के पक्के भाई अमर दास को मोसम की कोई परवाह नहीं थी | क्योकि उन्होंने अपने गुरु की सेवा के लिए अपने आप को खुद समर्पित कर दिया था | अचानक एक जगह पर उनका पैर फिसल गया और वे कीचड़ में जा गिरे | उनकी गागर भी टूट गई | वे चुपचाप उठे और नदी से चल भर कर घर पहुच गए | और गुरु अंगद देव को नहलाने लगे | अंगद देव जी ने अनसे पूछा, “भाई अमर दास, आज जब आप पानी लेने जा रहे थे तो रास्ते में क्या हुआ था? मुझे तो आपने कुछ बताया नहीं |”
अमर दास जी समझ गए की गुरु साहिब से कुछ भी छिपा नहीं है | इसलिए वे सहज स्वर में बोले, “मेरे फिसलने की आवाज से एक जुलाहा दंपति की नींद टूट गई थी | और सारी घटना का वर्णन किया |”
यह सुनकर गुरु अंगद देव जी बोले, “यह कहकर उनोने आप का अपमना किया”
लेकिन अमर दास ने कहा, “वह ओरत नासमझ है | जब आप जैसे गुरु का हाथ मेरे सर पर है तो बे बेसहारा कैसे हो सकता हु |”
अमर दास के मुह से ऐसे वचन सुनकर गुरुदेव के नेत्र सजल हो गए और उनके मुख से ये शव्द निकले –
तू निधानिया दा थान |
निमानिया दा मान ||
निगातिया दी गति |
निपतिया दा पति||
निधियो दा पीर|
निआसरिया दा आसरा||
(जिनके पास रहने के लिए कोई स्थान नहीं, उन्हें दे स्थान देता है | जिनका कोई मन नहीं है, उन्हें तू मान देता है | जिनकी कोई स्वामी नहीं, तू उनका स्वामी है | भाई अमर दास, तू तो निधियो का पीर है | जो बेसहारा है, तू उनका सहारा है |)
गुरु साहिब के स्नेह भी वचन सुनकर अमर दास ने नेत्रों में अश्रु भर आये | गुरु साहिब ने उसी समय अपने मन ने निश्चय कर लिया की वे अपना अतराधिकारी अमर दास को ही बनाएगे |
अगले दिन अपने प्रवचन करते समय उन्होंने अपने निश्चय का संकेत भी दे दिया |जब यह समाचार गुरु साहिब के दोनों पुत्रो तक पहुचा तो वे क्रोधित हो गुए | वे तो स्वंय को गुरु गद्दी का उतराधिकारी समझते थे | पिता द्वारा बूढ़े अमर दास को अपना अतराधिकारी बनाना वे किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं कर सकते थे | उन्होंने निश्चय किया की वे अमर दास को गुरु गद्दी पर नहीं बेठने देगे | आवश्कयता पढने पर उन्होंने अमर दास ही हत्या करने का भी योजना बना ली थी |
एक दिन गोंदा नाम का एक चरवाहा गुरु साहिब के पास आकर बोला, गुरु साहिब, में ब्यास नदी के दूसरी और एक गाँव में जाकर बसना चाहता हु | लिकिन लोग वहा जाने के लिए तेयार नहीं है | वे चाहते है की वहा भुत – प्रेत का वास है | आप अपने किसी सेवादार को मेरे साथ भेजने की कृपा करे | इससे लोगो का भय समाप्त हो जायगा और वे वहा रहने के लिए तेयार हो जाएगे |
तब गुरु साहिब ने अपने दोनों पुत्रो को बुलाया और उस चरवाहे के साथ जाने को कहा | लिकिन दोनों पुत्रो ने साफ इंकार कर दिया | आप किसी और को भेज दो हमे भुत – प्रेतों से मरना नहीं है |
अपने पुत्रो के मुख से इस प्रकार का उतर सुनकर गुरु अंगद बहुत दुखी हो गए | फिर उन्होंने अमर दास को बुलाया और चरवाहे के साथ जाने का आदेश दिया | जाते समय गुरु साहिब ने कहा, “बेटा अगर वहा तुम्हे कोई भुत – प्रेत मिले तो इस छड़ी से पीटना, वे तुरंत भाग जाएगे |”
अमर दास जी ने आज्ञा ली और वहा से चले गए | अमर दास जी वहा जा कर रहने लगे और उन्होंने अपने परिवार को भी वहा बुला लिया और मिल जुल कर रहने लगे |
कुछ दिन बिताने के बाद अमर दास जी को उन भूतो के बारे सब कुछ पता चल गया | पास के कुछ बदमाश व्यक्ति थे जी किसी को भी वहा नहीं रहने दे रहे थे | अमर दास जी ने उनको बहुत मारा और वो बदमाश वहा से चले गए | धीरे धीरे वहा लोग आ कर बसने लगे और कुछ ही दिनों में वहा एक छोटा कस्बा बस गया |
अमर दास अपनी ईमानदारी, समर्पण और नि:स्वार्थ सेवाभाव से गुरु अंगद देव का ह्रदय जीत चुके थे | 29 मार्च 1552, को गुरु अंगद देव ने अमर दास के हाथ पर एक नारियल और पांच बताशे रखे और उनके माथे पर तिलक करके उन्हें गुरु गद्दी सोप दी | और फिर भाई अमर दास, गुरु अमर दास जी बन गए और गोइंदवाल को अपना मुख्यालय बनाकर अपने सिधान्तो का प्रचार करने लगे |
दिन बीतते गए | जब गुरु अमर दास जो को लगने लगा की उनका अंत समय निकट आ रहा है | इसलिए अपने अंत समय में उन्होंने अपने शिष्य भाई राम दास जी को गुरु गद्दी सोप दी | इस तरह 1 सितबर 1574 को गुरु अमर दास इस नश्वर संसार को त्याकर “सत करतार” की अमर ज्योति में विलीन हो गए |