एक बार काशी नरेश ने कोसल पर आक्रमण करके उस पर अधिकार कर लिया | कोसल के रह ने आत्मसमर्पण नहीं किया और वहा से पलायन कर गए | कोसल की प्रजा अपने राजा के जाने से अत्यंत दुखी थी और उनमें हमेशा याद करती रहती थी |
काशी नरेश को यह सहन नहीं हुआ | उन्होंने घोषणा की कि जो कोई भी कोसल के पराजित राजा को जीवित पकड़कर उनके सामने लाएगा, उसे पर्याप्त धन दिया जायगा और कोसल का मंत्री नियुकत कर दिया जायगा | इस घोषणा का प्रजा पर कोई असर नहीं पड़ा | उधर कोसल के राजा जंगलो में भटक रहे थे | एक दिन उनकी मुलाकात एक भिखारी जैसे व्यक्ति से हुई | राजा ने उसका परिचय पूछा तो बोला, में बहुत बड़ा, व्यापारी था मगर मेरा जहाज पानी में डूब गया, जिससे मेरा सारा माल बहगया और में दाने दाने का मोहताज हो गया हू | अब में कोसल के राजा के पास मदद मागने जा रहा हू | यह सुनकर राजा अत्यंत द्रवित हो गया | उन्हें काशी नरेश कि घोषणा का पता चल गया था, सो उन्होंने इस व्यक्ति की सहायता की एक योजना बनाई |
वह उसे लेकर कोसल पहुचे और वहा काशी नरेश से बोले, “में कोसल का राजा तुम्हरे सामने हू | अब तुम मुझे पकड़ लो और अपनी घोषणा के अनुसार इस व्यक्ति को मंत्री पड़ और धनराशी दे दो |” काशी नरेश कोसल के राजा को हतप्रभ देखते रह गया | कुछ देर बाद वह सिहांसन से उतर कर राजा के चरणों में गिरकर क्षमा मांगते हुए बोले, ‘महाराज, मुझे क्षमा करे, जो राज प्रजा के बीज लोकप्रिय हो, अत्यंत निर्भय हो, मोत से भी न डरे और अपनी जन पर खेलकर दुसरो की मदद के लिया सदेव तेयार रहे उसे में तो क्या, कोई भी पराजित नहीं कर सकता |” यह कहकर उन्होंने कोसल के राजा का हाथ पकड़कर उन्हें सिहांसन पर बिठा दिया और वहा से चले गए |
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