दिनेश ने कैसे सीखा धंधे का गुर

एक शहर में एक हरीश नाम का आदमी रहता था जो की बहुत गरीब था वह अपने परिवार का पालन पोषण बहुत मुस्किल से करता था | उसके घर में उसकी बीवी, एक बेटा और एक बेटी थी | हरीश एक ईमानदार इन्सान था वो अपने बेटे को भी ईमानदार बनान चाहता था और उसके लिए वो हर कोशिश करता था | उसका बेटा अब बड़ा हो गया था और उसके हाथ बटाने योग्य भी हो गया था | हरीश ने अपने रिश्तेदारों से पैसे उधर पर ले कर अपने बेटे को एक जूते की दुकान खोल कर दी शहर में ही | दिनेश बहुत मन लगा कर वहा पैर काम करता था और जूते बेचता था |

पूरा शहर जनता था की दिनेश अपने पिता की ही तरह बहुत ईमानदार है | तब भी दुकान खुलने के एक सप्ताह तक वो कोई जूता न बेच सका | दिनेश बहुत उदास था क्योकि उसको पता था की उसके पिता ने किस तरह से उसको यह दुकान खोल कर दी है | उसने इस बारे में अपने पिता से बात की | हरीश ने बहुत विनर्ता से अपने को कहा, “चिंता मत करो में तुम्हारी मदद करुगा “| अगले ही दिन हरीश भी अपने बेटे के साथ पूरा दिन उसकी दुकान पर रहा | पूरा दिन बीतने के बाद हरीश ने अपने बेटे दिनेश से कहा, “बेटा तुम केवल ईमानदारी के बूते पैर जूते नहीं बेच सकते | तुम्हे यह सीखना होगा की ग्राहक को कैसे खुश किया जाता है|” दिनेश अपने पिता का इशारा समझ गया |

अगले ही दिन, दिनेश की दुकान पर एक आदमी अपने बेटे के साथ आया और अपने बेटे के लिए जूते देखने लगा | दिनेश ने अपनी समझ से बच्चे के सही नाप के तरह तरह के जूते दिखाए | परन्तु कोई जूता छोटा होता तो कोई बड़ा | इसलिए बच्चे के पिता ने निश्चय किया की वह अपने बेटे के लिए जूते कही और से खरीद लेगा | लेकिन दिनेश ने उससे विश्वास दिलाया की वाही जोड़ी जूते उसके बच्चे के लिए सही सही होगे क्योकि कुछ ही दिनों में बच्चे के पैर बड़े हो जायगे तब क्या आप फिर से नई जोड़े जूते लोगे | “बडती आयु में कभी भी बच्चो की चिच्जे बराबर की नहीं लेनी चाहिए,” दिनेश ने यह बात उस आदमी को समझाई और उसको यह बात समझ आ गई |

उस आदमी ने उसी समय वह जतो की जोड़ी खरीद ली | अब दिनेश को समझ आ गई की व्यपार कैसे करते है बिना ईमानदारी को त्यागे | उस दिन दिनेश ने १५ जोड़ी जूते बेचे | और इस प्रकार उसकी दुकर पुरे शहर में प्रसिध हो गई |

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