Badrinath biography in hindi (बद्रीनाथ की सम्पूर्ण कहानी हिंदी में)

उत्तराखंड के चमोली जनपद में अलकनंदा नदी के तट पर समुद्र तल से 3133 मीटर ऊंचे हिमालय पर्वत के शिखरों पर स्तिथ बद्रीनाथ हिंदुओं का प्रमुख तीर्थ स्थल है जो कि अपनी स्तिथी के कारण एक बहुत ही ठंडा प्रदेश होने की वजह से वर्ष के छह महीने ही यात्रियों के लिए खुला रहता है। ऐसी मान्यता है कि यह स्थान पहले भगवान भोलेनाथ का हुआ करता था जिसे भगवान विष्णु ने बाद में महादेव से मांग लिया था।

बद्रीनाथ के बारे में कुछ विशेष तथ्य (About Badrinath)

आज हम आपको बद्रीनाथ से जुड़े कुछ ऐसे तथ्य से अवगत कराएंगे जो शायद आपने पहले कभी नहीं सुनी हो-

  • बदरीनाथ नर और नारायण दो पर्वतों के मध्य स्तिथ माना जाता है। ये नर और नारायण भगवान विष्णु के ही अंश थे जिन्होने इस स्थान पर तपस्या की थी।
  • अपने पुनः जन्म में नर अर्जुन के रूप में अवतरित हुए वहीं नारायण स्वयं भगवान श्री कृष्ण के रूप में।
  • बदरीनाथ पहले भगवान शंकर की भूमि मानी जाती थी जिसे भगवान विष्णु ने भोलेनाथ से मांग लिया था।
  • ऐसा माना जाता है कि जो एक बार यह आ जाता है उसे फिर कभी माता के गर्भ में नही आना पड़ता, अतार्थ वह जन्म मरण के चक्कर से मुक्ति पा लेता है।
  • ऐसा माना जाता है कि जब छह महीने यहां के कपाट बंद रहते हैं तो उसके अंदर जल रहे दीपक की रखवाली स्वयं देवता करते हैं और जब कपाट खुलते हैं तो उस जलते दीपक का दर्शन बहुत ही फलदायी होता है।
  • बद्रीनाथ के पूजा शंकराचार्य के वंशज ही करते हैं और इन छह महीनों में वे पूर्ण ब्रह्म चर्य का पालन करते हैं।
  • आमतौर पर बद्रीनाथ के कपाट केदारनाथ के बाद ही खुलते हैं पर किन्ही विशेष स्तिथियों में बद्रीनाथ के कपाट पहले खोल दिए जाते हैं।

बद्रीनाथ की स्थापना

ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि बद्रीनाथ की स्थापना 7वीं व 9वीं सदी के मध्य हुई थी। यहां पर हिंदुओं के भगवान विष्णु की बद्रीनारायण रूप में पूजा होती है। यहां भगवान विष्णु की शालीग्राम से निर्मित एक मीटर ऊंची मूर्ति है जिनके बारे में ऐसा माना जाता है कि शंकराचार्य ने इसे नारद कुंड से निकलकर यहां स्थापित किया था। उत्तराखंड सरकार द्वारा निर्मित एक सत्रह सदस्यीय समिति इस मन्दिर का संचालन भार संभालती है।

हिंदुओ के कई प्राचीन ग्रंथों एवं पुराणों जैसे विष्णु पुराण, स्कन्द पुराण तथा महाभारत में इस मंदिर का उल्लेख मिलता है। ऋषिकेश से 294 किलोमीटर की दूरी पर उत्तर की ओर स्तिथ इस स्थान तक पहुँचने के लिए चार धाम मार्ग एवं चार धाम रेलवे मार्ग पर कार्य चल रहा है।

बद्रीनाथ का नामकरण

हिमालय की तलहटी में स्थित इस पवित्र स्थान को भिन्न भिन्न कालों में भिन्न भिन्न नामों से उल्लेखित किया गया है। स्कन्दपुराण में इस स्थान को मुक्तिप्रदा के नाम से दर्शाया गया है। सत युग मे यहि इस क्षेत्र का नाम हुआ करता था।

त्रेता युग में इस क्षेत्र को योग सिद्ध और द्वापर युग में मणिभद्र आश्रम या विशाला तीर्थ के नाम से भी जाना जाता था। कलियुग में यह स्थान बद्रिकाश्रम या बद्रीनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। यह नाम यहां पाए जाने वाले अधिकाधिक बेर के पेड़ के नाम के कारण भी पड़ा है। पहले इस स्थान पर बेर (बद्री) के जंगल पाए जाते थे जो अब लुप्त हो गए है।

बद्रीनाथ के नामकरण के ऊपर एक कथा भी प्रचलित है। कहा जाता है कि एक बार जब नारद मुनि क्षीरसागर पर गए तो उन्होंने माता लक्ष्मी को भगवान विष्णु के पैर दबाते देखा। जब उन्होंने भगवान विष्णु से इसका कारण पूछा तो वे अपराधबोध से ग्रसित हो गए एवं तपस्या करने हिमालय को चले गए। तपस्या में लीन भगवान विष्णु के स्थान पर बहुत तेज हिमपात होने लगे।

जब माँ लक्ष्मी ने उन्हें इस अवस्था में देखा तो रह न सकी और भगवान विष्णु के पास बद्री के पेड़ के रूप में खड़ी हो गई। सभी हिमपात को उन्होंने अपने ऊपर ले लिया। जब भगवान विष्णु की तपस्या पूरी हुई तो उन्होंने देखा के माता लक्ष्मी पूरी हिम् से ढक चुकी है। उस समय भगवान ने कहा कि इस स्थान पर आपने भी मेरे साथ मेरे समान तपस्या की है इसलिए इस स्थान पर आप मेरे साथ पूजीं जाएंगी और  चूंकि आपने मेरी रक्षा बद्री के रूप में की है इसलिए मैं यहां बद्रीनाथ कहलाऊंगा।

पौराणिक कथाएं

पौराणिक कथाओं में ऐसी मान्यता है कि बद्रीनाथ का पूरा क्षेत्र शिव भूमि के अंतर्गत था। जब गंगा नदी धरती पर अवतरित हुई तो बारह शाखाओं में बंट गई, इस स्थान पर बहने वाली धारा को अलकनंदा के नाम से जाना जाने लगा। भगवान विष्णु जब तपस्या के लिए स्थान खोज रहे थे तो उन्हें यही स्थान उचित लगा।

उन्होंने एक बालक का रूप धारण किया और वहां रोने लगे। जब माता पार्वती उनका रोना सुनी तो उन्हें मनाने लगी। बालक रूपी भगवान विष्णु ने उनसे ध्यान के लिए वह स्थान मांग लिया। बाद में यही स्थान बद्रीनाथ के नाम से विख्यात हुआ।

एक अन्य कथा के अनुसार नर और नारायण नामक दो धर्म पुत्रों ने धर्म प्रचार के लिए कई वर्षों तक यहां तपस्या की थी। अपना आश्रम बनाने के लिए उन्हें उचित स्थान की तलाश थी। उन्हें अलकनंदा नदी के पीछे एक गर्म और एक ठंडे पानी का चश्मा मिला। इसी स्थान को उन्होंने बद्रीनाथ कहा।

एक अन्य मान्यता के अनुसार व्यास जी ने इसी स्थान पर महाभारत की रचना की थी। ऐसा भी माना जाता है कि पांडवों ने इसी स्थान पर अपने पितरों का पींड दान किया था। इसीलिए आज भी लोग यहां पिंड दान करने आते हैं।

बद्रीनाथ का इतिहास

बद्रीनाथ के विषय में आ एक मत प्रचलित हैं। ऐसा भी माना जाता है कि यह स्थान पहले बौद्धों का था जिसे शंकराचार्य ने हिन्दू तीर्थ में परिवर्तित कर दिया। ऐसा इसलिए मन जाता है क्योंकि इसका अगला भाग बौद्ध मंदिरों के समान ही दिखता है।

एक अन्य मान्यता के अनुसार शंकराचार्य ने यहां छह वर्षों तक तपस्या की थी। इस तपस्या काल मे वे छह महीने बद्रीनाथ में एवं बाकी समय केदारनाथ में रहते थे। हिन्दू धर्मानुयाईओं का कहना है कि यह स्थान आदि काल से ही हिंदुओं का तीर्थ हुआ करता था।

जब बौद्धों का प्रभाव बढ़ तो उन्होंने मूर्ति को उठाकर गंगा नदी में फेंक दिया, जिसे शंकराचार्य ने अलकनंदा नदी से निकालकर उसकी पुनः स्थापना की। एक पौराणिक कथा के अनुसार शंकराचार्य ने परमार के राजा कनकपाल की सैन्य सहायता से इस स्थान को बौद्ध सम्प्रदाय से मुक्त किया, बाद में इसी वंश के राजाओं ने इस मंदिर में देख भाल का कार्य संभाला।

गढ़वाल के राजाओं ने इस मंदिर की देख रेख के लिए एक ग्राम समूह की रचना की थी। साथ ही बद्रीनाथ आने जाने के मार्ग में कई ग्राम भी बसाए जिससे यहां आने वाले तीर्थ यात्रियों को किसी प्रकार का कष्ट न हो।

ब्रिटिश शाशन काल मे यह क्षेत्र अंग्रेजों के अधीन हो गया था फिर भी इसकी देख रेख गढ़वाल के राजा ही करते थे।

बद्रीनाथ की स्थापत्य शैली

बद्रीनाथ का मंदिर अलकनंदा नदी से 50 मीटर ऊंचाई पर स्तिथ है जिसका मुख्य द्वार नदी की ही ओर है। मंदिर का मुंह पत्थर का बना है, जिसमे धनुष के आकार की खिड़कियां है। चौड़ी सीढ़ियों से चलकर हम इसके द्वार तक पहुँचते है जो कि की लंबा धनुष के आकार का द्वार है और सिंह द्वार कहलाता है।

इसके ऊपर तीन सोने के कलश रखे हुए हैं। इस मंदिर के मुख्य रूप से तीन भाग है। गर्भ गृह, सभा मंडप और दर्शन मंडप। यहां भगवान विष्णु की शालिग्राम से निर्मित एक मीटर ऊंची मूर्ति जिसे बद्री के वृक्ष के नीचे रख गया है।

मूर्ति में भगवान के दो हाथ ऊपर उठे हैं, जिनमें एक मे शंख तथा दूसरे में चक्र है। साथ ही और दो हाथ पद्मासन की मुद्रा में भगवान की गोद मे हैं । इसके अलावे यहां चारों ओर पंद्रह और भी मूर्तियां हैं। द्वार से प्रवेश करते ही मंडप है जहां श्रद्धालु भक्तजन बैठ कर पूजा अर्चना करते हैं।

बद्रीनाथ की त्योहार

बद्रीनाथ में मनाया जाने वाला सबसे मुख्य पर्व माता मूर्ति का मेला है जो गंगा नदी के आगमन की खुशी में मनाया जाता है। ऐसा मन जाता है कि लोक कल्याण के लिए गंगा नदी यह बारह शाखाओं में बंट गई है। उन्ही की पावन धरती पर बद्रीनाथ की स्थापना हुई ।

बद्रीनाथ का एक अन्य त्योहार बद्री केदार है जो जून के महीने में मनाया जाता है। एक त्योहार में देश भर से कलाकार यह आते है एवं अपनी अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। यह त्योहार बद्रीनाथ तथा केदारनाथ दोनों ही मंदिरों में एक साथ मनाया जाता है। भक्त मंदिर में पूजा करने के साथ साथ अलकनंदा के कुंड में भी डुबकी लगाते हैं। ऐसा माना जाता है कि ऐसा करने से आत्मा की शुद्धि हो जाती है।

निष्कर्ष

बद्रीनाथ की यात्रा तीन ओर से की जा सकती है, रानीखेत से, कोटद्वार होकर पौड़ी से और हरिद्वार होकर देवप्रयाग से। ये तीनो रास्ते कर्णप्रयाग में आपस मे मिल जाते है। जिस भी मार्ग से जाए लेकिन एक बार भगवान बद्री के दर्शन अवश्य प्राप्त करे। जीवन को मोक्ष दिलाने वाले चार धामों में एक इस महान तीर्थ के बारे में आज हमने विस्तार से जाना । उम्मीद है कि आपको आवश्यक जानकारी जो आप ढूंढ रहे थे, जरूर प्राप्त हुई होगी और हमारा यह अंक आपको पसंद आया होगा।

 

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