गुरु अंगद देव जी सरदारों के २ महान गुरु थे | उनका जन्म 31 मार्च 1504, में फिरोजपुर के एक खत्री परिवार में हुआ था | उनके पिता का नाम फेरुमल और माता का नाम दया कोर था | उसके पिता की किराने की दुकान थी और उसी दुकान से वो अपने परिवार का पालन पोषण करते थे |
लहना की बचपन से ही धर्म और दर्शन जैसे विषयों ने रूचि थी | उनका जीवन अच्छे से व्यतीत हो रहा था की अचानक उन पर एक विपति आ पड़ी | उस क्षेत्र का शासक किसी कारण से उनके पिता फेरुमल पर कुर्ध हो गया और उसने सारी संपति जब्त करने का निश्चय कर लिया |
इस बात का जब फेरुमल को पता चला तो वो अपने परिवार को लेकर रातो रातो अपनी बहन जो अमृतसर के पास खडूर गाँव में रहती थी व चले गए | वहा पहुच कर फेरुमल के फिर से अपना अपना काम सुरु किया और किराने की दुकान खोल ली |
सन 1519, में लहना का विवाह उसी गाँव के निवासी देविचन्द्र खत्री की बेटी से हो गई | समय बिता गया और लहना अपने पिता के साथ काम करने लगे | लहना की ईमानदारी और चरित्र की लोग प्रंशसा करते न थकते थे और कुछ समय बाद खडूर के लोगो ने लहना को अपना चोधरी चुन लिया |
समय बीतता गया | उन्हें हमेशा लगत था की अंक जन्म इस सुविधाओ को भोगने के लिए नहीं हुआ है | वे शांति की तलाश में भटक रहे थे और किसी उच्च गुरु की तलाश में थे जो उन्हें परमात्मा की रहा दिखा सके |
कुछ समय बाद उनके पिता की मृत्यु हो गई और पुरे परिवार का भार उनके कन्धो पर आ गया | उन्हें अब अपने कारोबार में ज्यादा से ज्यादा समय देना पड़ता था | लेकिन मन ही मन उन्होंने ने ठान लिया था की किसी न किसी की शरण में जरुर जाना है |
एक दिन जब वो नदी में स्नान कर रहे थे उनको किसी मधुर आवाजे सुनाई दी | उन्होंने उस मधुर आवाज का पीछा किया और वो एक कुटिया के पास जा पहुचे | या कुटिया गुरु नानक के एक शिष्य की थी जिस का नाम जोधा था | वहा पहुचकर लहना उस पद के भाव भाई जोधा के मुंह से सुनकर अत्यंत प्रभावित हुए | अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए लहना ने उनसे बात की |
“भाई जोधा, इस मधुर पद का निर्माण किसने किया?”
भाई जोधा ने उतर दिया, “परमात्मा का यह संदेश गुरु नानक प्रथ्वी पर लेकर आए है |”
यह सुनते ही लहना ने उसी दिन करतारपुर जाकर गुरु नानक से भेंट करने का निश्चय कर लिया और धर जा कर सभी बताया |
कुछ दिनों बाद उनका परिवार और कुछ गाँव वाले ज्वालामुखी मन्दिर जाते हुए करतारपुर में रुके और वहा लहना को गुरु नानक जी से भेंट करने का मोका मिला | वे घोड़े पर स्वर होकर गुरु नानक जी से मिलने चल पड़े | मार्ग में एक खेत में काम कर रहे एक आदमी से उनसे पूछा, “में गुरु नानक देव जी के दर्शन करना चाहता हु | कृपा करके आप मुझे उनके दर्शन करा देगे ?”
वह वृद आदमी बोला, आप थक गए है कृपा करके थोडा विश्राम कर लीजिये | फिर आप के साथ चलता हु |” यह सुनकर लहना बेठ गया और वृद आदमी ने उन्हें मीठे गन्ने दिए और थोड़ी देर में एरिड आदमी ने अपना काम खत्म किया और दोनों चल पड़े | लहना घोड़े पर बेठ गए और वृद आदमी घोड़े के लगाम थामकर आगे आगे चलने लगे | चलते चलते लहना ने वृद आदमी बहुत सरे प्रश्न पूछे गुरु नानक के विषय में और वृद आदमी ने सारे प्रश्नों के उतर दिए |
फिर वो लोग आश्रम पहुच गए और वृद आदमी ने बोला, “ आप अपने घोड़े को यह बांध दीजिए और अंदर चले जाइए | लहना ने वैसा ही किया और आश्रम के अंदर चला गया | वहा काम कर रहे सेवादारो ने उसे गुरु नानक जी के पास ले गए | वहा पहुच कर लहना हेरान हो गया | लहना उस कमरे में उसी वृद को देखकर चकित रह गया, जो उन्हें वहा तक छोड़कर गया था |
लहना ने कहा, “में तो यहाँ गुरु नानक देव से मिलने आया था | क्या वे यही नहीं है ?”
तब उस वृद ने मुस्कुराकर कहा, “मेरे बच्चे, में ही नानक हु | यहाँ तुम्हारा स्वागत है |” यह देखकर लहना की आँखे आश्चर्य और अविश्वास से खुली रह गई |
गुरु नानक बोले, “चिंता न करो मेरे बच्चे, यहाँ तुम हमारे अतिथि हो | अतिथि का सेवा-सत्कार करना ही तो हमारी परंपरा है |”
यह सुनकर लहना की आँखों में आंसू आ गए और बोले, “गुरु साहिब, मेरे अपराध क्षमा करो और मुझे अपना सेवक बना लीजिए | मुझे अपने चरणों में हमेशा के लिए स्थान दे दीजिए |”
तब गुरु नानक ने लहना को आशीर्वाद दिया और उनकी सभी जिज्ञासाओ को शांत किया | एक दिन गुरु नानक ने लहना से कहा, जाओ बेटा घर जा कर अपने परिबार जनों से मिल आओ | परन्तु अब उनका मन कहा लगना था और एक दिन साहिब को भेंट करने के लिए वे सर पर नमक का भारी बोझ लादकर पैदल ही चल पड़े | वहा पहुच कर गुरु नानक जी की पत्नी सुलखिनी देवी ने देखा तो वह उनके सहनशक्ति और समर्पण से प्रभवित हो गई | उन्होंने लहना के साथ पुत्रवत व्यवहार लिया और उन्हें आशीर्वाद दिया |
धीरे धीरे लोग उन्हें आदर से भाई लहना कहने लगे | भाई लहना पूर्ण समर्पण से अपने गुरु की सेवा करते थे | उनका मानना था की कोई व्यक्ति परमात्मा का सच्चा सेवक तभी हो सकता है, जब वह पहले अपने गुरु का निष्काम सेवक बन सके | लहना की अपने गुरु के प्रति ऐसी भावना देखर बरबस ही ये पक्तिया याद आ जाती है “ |
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अब गुरु नानक को अपना उतराधिकारी मनोनीत करने की आवश्यकता अनुभव हुई तो सबसे पहले लहना का ही नाम उनके मस्तिष्क में आया | लेकिन उनकी पत्नी ने उसकी इच्छा का विरोध किया | वे चाहती थी की उनके सीसी पुत्र को गुरु बनाया जाए | तब गुरु ने अपने दोनों पुत्रो और लहना की परीक्षा ली और तीनो बार लहना ने स्वंय को श्रेठ साबित किया |
जब गुरु अपने अंत समय निकट जाना पड़ा तो वे अपने सभी शिष्यों को बुलाकर बोले, “लहना ने अपना सारा जोवन मानवता की सेवा से समर्पित कर दिया है | जब मेरा शरीर नहीं रहेगा, तब में लहना के रूप में ही मानव जाती की सेवा करुगा | आज से लहना को अंगद देव कहा जाएगा |”
सन 14 जुलाई 1539, को अंगद देव सिख पंथ के दुसरे गुरु बने |
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